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Tarun Suthar

तुझे पता हैं…
आज भी उसी मोड़ पर…
दोबारा आकर ठहर गया हूँ मैं…
एक अरसा हुआ हैं शायद…
ना जाने कितने मौसम गुज़रें….
ना जाने कितने सावन बरसे…
कितनी धूप… कितनी धूल…
और ना जाने कितने ही लोग…
गुज़रें होंगे यहीं से… अब तक…
फ़िर भी उस एक पल…
उस एक लम्हें में…
कहीं अटका हुआ हूँ मैं अब तक…
कि तू यहीं तो थी… और
थोड़ी सी तो दूरी थी…
ना हो सकीं… थोड़ी सी भी कोशिश…
ना रोक सके… थोड़ी देर के लिए भी…
बस यही सोच कर चला आता हूँ…
कहीं वो दौर लौट आए…
इतने लोग गुज़र रहे हैं यहा से…
कभी तू भी यहीं से गुज़र जाए…
और शायद… हाँ शायद…
हो सके तो तू भी यहीं ठहर जाए…

~तरुण


1 ग़र एक तरफ़ अस्मत हैं…
तो दूसरी तरफ़ फंदा होना चाहिए…
ग़र तराजू से ही करना हैं…
इन्साफ़ अभी भी…
तो इन्साफ़ होना चाहिए…

~तरुण


कितना अज़ीब हैं ना…
लोग मौत तक को गले लगा लेते हैं…
ताकि सुकून से सो सके…
मग़र ये दुनिया का दस्तूर…
उन्हें सोने भी नहीं देता…
अपने सुकून के लिए…

~तरुण


इश्क़ हो या…
इश्क़ का कोई तरीका…
जो भी हो…
तुम ही हो…
इस ज़िंदगी को…
जीने का एक सलीक़ा…

~तरुण



इश्क़ दा परिंदा उड़ उड़ जावे…
वो पास हैं या दूर…
कुछ समझ ना आवे…
कभी लागे मीरा सी…
जो बिन कान्हा भी प्रेम नु पावे…
कभी लागे राधा सी…
जो कान्हा संग भी रह ना पावे…
ये इश्क़ दा परिंदा उड़ उड़ जावे…
वो पास हैं या दूर…
कुछ समझ ना आवे…

~तरुण


ये बात तो सच हैं कि…
चाँद गवाही देता हैं मोहब्बत की…
मग़र उन तारों को तो…
तबाही भी मंजूर होती हैं…
ख़ुद की…जो टूटते रहते हैं…
उसी मोहब्बत की ख़ातिर…

~तरुण


ग़र करोगे क़ैद किसी परिंदे को…
तो उसकी परवाज़ कैसे देखोगे…
ज़मीं से आसमाँ तो…
इंसान तकते हैं…
परिंदे नहीं…

~तरुण


जब ये रब का फ़ैसला हैं तो वही सही…
अब तू हैं कहीं और मैं हूँ कहीं…
जो पास हैं वो तो छिन भी सकता हैं…
अब तू दूर हैं तो दूर ही सही…

~तरुण


वैसे तो कोई मेल नहीं हैं तेरा मेरा…
मग़र हर बादल में बारिश हो…
ये ज़रूरी भी तो नहीं…

~तरुण


कभी कभी सोचता हूँ…
कि वो दीवारें…
कितना कुछ जानती हैं ना…
मेरे बारे में…
कई अर्से से वहीँ हैं…
अब तो मैली भी हो गई हैं…
थोड़ी सी मग़र…
देखा हैं उन्होंने मुझे…
मेरे असल चेहरे को…
मेरे मन में उठी लेहरों को…
वो जानती हैं बहुत कुछ…
जो शायद कभी कहा नहीं जाएगा…
और कभी लिखा भी नहीं जाएगा…
फ़िर भी साथ हैं वो मेरे…
हर वक़्त…
एक घेरे में सँवार के रखा हैं…अब तक…
सबसे बचा के रखा हैं…अब तक…
मग़र अब वो टूटने लगी हैं…
दरारों में लिपटने लगी हैं…
रंगों को भूलने लगी हैं…
हाँ वहीँ दीवारें…
अब मुझसे कुछ कुछ कहने लगी हैं…
हाँ वहीँ दीवारें…

~तरुण


एक वक़्त वो भी था…
जब इश्क़ होता था…
मग़र भनक किसी को नहीं होती थी…
आज सिर्फ़ भनक होती हैं…
इश्क़ किसी को नहीं होता…

~तरुण


बादलों में भरे हुए पानी का…
बारिश बनकर ज़मीं पर उतरना…
लगे जैसे ज़मीं की कोई गहरी प्यास हैं…
जो अब तलक बुझी नहीं…

~तरुण


या फ़िर ज़मीन का कोई एक हिस्सा…
जो अब बादल बन गया हैं…
अब तलक कोशिशों में हैं कहीं…
फ़िर से मिल जाए उसी ज़मीं से…
बादल बनकर ना सही…
बारिश बनकर ही सही…

~तरुण



राम!!! सिर्फ़ एक नाम नहीं…

एक दर्पण हैं… जो ज़िंदगी दिखा सकता हैं…
एक चरित्र हैं… जो जिया जा सकता हैं…
एक संघर्ष हैं… जो जीता जा सकता हैं…

एक घूंट हैं… जो प्यास बुझा सके…
एक सबक हैं… जो जीना सीखा सके…
एक हिस्सा हैं… जो सब के जीवन में हो सके…
एक जीवन हैं… जो सबका हिस्सा हो सके…

राम!!! सिर्फ़ एक नाम नहीं…

थोड़ा रेत सा नर्म हैं…
थोड़ा माँ सा मर्म हैं…
थोड़ा धूप सा गर्म हैं…

थोड़ा सरल सा भी… और थोड़ा तरल सा भी हैं…
किनारे तक ले आए वो एक लहर सा भी हैं…

राम!!! जो रग रग में बसा हो…
राम!!! जहा भगवा रंग चढ़ा हो…
राम!!! जहा बजरंग रमा हो…
राम!!! जहा सत्संग मिला हो…

राम!!! सिर्फ़ एक नाम नहीं…

~तरुण


कभी कभी बारिश से मिलने…
धूप भी आ ही जाया करती हैं…
कुछ कुछ बूँदों में छनती हैं…
तो कुछ आसमाँ में बिखरती हैं…
और एक रंगीन धनुष बनाती हैं…

तुम भी वहीं धूप हो जाना…
चाहें कितनी बारिशें हो…
कभी तो तुम भी आ जाना…
एक पल के लिए ही सही…
मिलना और बिखर जाना…
रंगीन ना सही…
एक हसीन सी मुलाकात दे जाना…

~तरुण


कुछ तो जुड़ा हुआ हैं…
पहली बारिश और पहले इश्क़ के दरमियाँ…
दोनों का इंतज़ार ज़रूर रहता हैं…
एक सुकून देकर जाती हैं…
और एक अज़ीब सी बेचैनी…

~तरुण


हो सके एक दिन तो तू आ जाना…
इन ख़्यालों के सागर को किनारा दे जाना…
कवि तो अकेला था मैं…
तू कविताओं में आकर ठहर जाना…

~तरुण


देख रहा था मैं उस आसमाँ को…
ज़मीं पर भरे पानी के अक्स में…
तो क्या कहीं वो भी देखता होगा…
बादलों में भरे पानी में मुझे…

~तरुण


ग़र कभी इत्तेफ़ाक से…
मैं, तुम्हें बाज़ार में दिख जाऊँ…
हाँ उसी बाज़ार में…
तो कहो, तुम मिलने आओगे…?
अगर तुम्हारा ज़वाब ना हैं ना…
तो मैं मान लूँगा…
कि तुम बंदिशों में हो…
और तुम अब वो नहीं हो…
जो तुम थी कभी…
अगर फिर भी तुम्हारा ज़वाब ना हैं ना…
तो मैं मान लूँगा…
कि कुछ हैं जो तुम्हें रोक रहा हैं…
कुछ हैं जिससे मायने बदल गए हैं…
अब भी तुम वो नहीं हो…
मग़र होना ज़रूर चाहती हो…

अगर कहीं कुछ ज़रा सा भी…
तुम्हारा ज़वाब हाँ हैं ना…
तो मैं मान लूँगा…
कुछ था… जो अब तक बाकी हैं…
तुम तो नहीं… मग़र तुम्हारे ख्याल बागी हैं…
अब भी तुम वो नहीं हो…
तुम हो तो सही… मग़र गुम हो कहीं…
ग़र कभी इत्तेफ़ाक से…
मैं, तुम्हें उस जहाँ में मिल जाऊँ…
जो तुम्हारे ख्यालों में हो…
जो तुम्हारा ही ख़्वाब हो…
और जहा सिर्फ़ हम दोनों ही हो…
तो कहो, तुम मिलने आओगे…?

~तरुण


सवेरे-सवेरे हाथों में झोला लिए…
कुछ-कुछ ढूंढता हैं वो बचपन…
रास्तों पर भटकते नंगे पाँव लिए…
सपनों को पूरा करता हैं वो बचपन…

एक छोर से तैरता हुआ…
कभी काग़ज़ की नाव में वो बचपन…
कभी बारिश से भरे पोखरों में…
बेपरवाह उछलता वो बचपन…

कभी संदूको में ढूंढता…
अपना खोया हुआ वो बचपन…
कभी पतंगों सा उड़ता…
बेहिसाब वो बचपन…

कभी पापा की फटकार से…
सहमा हुआ वो बचपन…
कभी यारों की ललकार से…
झूमता हुआ वो बचपन…
तो कभी माँ के दुलार से…
झूलता हुआ वो बचपन…

ये बचपन ही तो असल ज़िंदगानी हैं…
बचपन के बाद तो ये ज़िंदगी…
बस एक कहानी हैं…

~तरुण


कभी सोचा हैं…
उस एक लम्हें…उस एक पल…
उस एक क्षण में…
जब पेड़ के पत्ते को… ये मालूम हो जाता हैं…
कि उसका टूटना… अब बस तय ही हैं…

फ़िर भी वो…
उम्मीद तो करता ही होगा ना…
कि अलग ना हो… और टूटे भी ना…
उसको भी कोई थाम लें…
कस के पकड़ लें…
पर कोई नहीं मिलता होगा ना…
जो ये पुकार सुन लें…

और ना जाने क्या ज़वाब देता होगा…
वो पेड़ भी दर रोज़ उन पत्तों को…

बस शायद इसलिए…
वो ख़ुद ही टूट के गिरते हैं…
हाँ शायद…
और कुछ सीखा भी जाते हैं…
शायद यही तो हैं…
इस ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा…

~तरुण


बारिश बनकर लौटी हो ना तुम…
मालूम हैं मुझे…
मग़र तुम कोई चार मास की बारिश नहीं हो…
इश्क़ हो…
जो एक बार भीगे…
सो भीगे ही रह गए…

~तरुण


शोहरत भरी थी ज़िंदगी में…
फ़िर क्यूँ ख़ामोशी का पहरा था…
दुनिया को जीत रहा था जो…
फ़िर क्यूँ वो शख़्स अकेला था…

आसान नहीं होता मुस्कुराते रहना…
ग़र दिल में ग़म बेहिसाब हो…
आसान नहीं होता सुकून से सोना…
ग़र दिल में ख्वाहिशें हज़ार हो…

जो देता रहा सीख जीने की…
फ़िर क्यूँ वो जीने से घबरा गया…
करके सौदा मौत से वो…
फ़िर ज़िन्दगी का मोल सीखा गया…

~तरुण


बेपरवाह हसीं लम्हो को जीता रहा
जाने क्यों मे लहरों सा बेवजह बहता रहा…
एक अजय सा नशा हे मोहब्बत का…
किनारा मिलने पर भी मेँ उसी की रहे तकता रहा।

~तरुण


लौट आओ तुम भी…
उन्ही कहानियो की तरह…
उसी किरदार मे…
जो लौट आई हे…

~तरुण



पर्दो पर…
















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